सोमवार, 7 मार्च 2016

स्वयं सेवी संस्था "संजीवनी" ने किया महिलाओं का सम्मान ....

 नई दिल्ली: 
स्वयं सेवी संस्था  “संजीवनी’’  संकल्प सामाजिक कार्य का..(रजि.) ने किया महिलाओं का सम्मान :
‘अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर पर स्वयं सेवी संस्था “संजीवनी’’  संकल्प सामाजिक कार्य का..(रजि.) की संस्थापिका एवं अध्यक्षा श्रीमती अनिता गुप्ता की के नेतृत्व में दिल्ली के  क़ुतुब विहार में ‘महिला सम्मान समारोह - 2016’ का भव्य आयोजन किया गया.. जिसमें  समाज की उन महिलाओं का सम्मान किया गया जिन्होंने अपने जीवन में तमाम कठिनाइयों का  सामना करने के बावजूद समाज में एक नया आयाम स्थापित करके दूसरों को प्रेरित किया,  और यह सिद्ध किया कि महिलाएं किसी भी क्षेत्र में किसी से कम नहीं....!  
इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में ‘फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट’ की सरकारी अधिवक्ता थी, इस अवसर पर ‘संजीवनी’ की अध्यक्षा श्रीमती अनिता गुप्ता जी ने समाज  में   महिलाओं के साथ  हो रहे अत्याचार के प्रति चिंता जताई , और सरकार से अनुरोध किया कि महिला सुरक्षा हेतु कड़े से कड़े क़ानून बनाए जाएं और लागू किए जाएँ,  साथ ही अपनी और से  आश्वाशन दिया कि संस्था की ओर  से जितना भी हो सके जरूरतमंदो के लिए हमेशा मदद  के लिए  तत्पर है !
उन्होंने बताया कि “संजीवनी’’    जमीनी तौर पर पिछले कई वर्षों से लगातार निस्वार्थ भाव से जनहित में कार्य  कर रही है...जिसमें  असहाय , जरूरत मंदों एवं गरीब की मदद , महिला सशक्तीकरण , बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ’  मुख्य है..!    रोजगार की दृष्टि से ‘संजीवनी’ लगातार जरूरतमंदो के लिए रोजगार दिलाने का कार्य कर रहा है..! संस्था सिलाई बुनाई  के साथ अन्य  कई माध्यमों   से बेरोजगारों के लिए रोजगार प्रदान कर  रहा है ..  ! साथ   ही संजीवनी ‘दामिनी’ एवं ‘नजबगढ़ की निर्भया’ को  न्याय दिलाने के लिए लगातार  लड़ाई रहा है ..!!

संस्थापिका एवं अध्यक्षा,  श्रीमती अनिता गुप्ता जी ने  कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु सभी स्वयंसेवी, कार्यकर्ता, पदाधिकारी एवं सहयोगीयों  का  आभार व्यक्त किया ! 
  

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

Must watch : Garhwali Pahadi Dhol ,Damao Video by ; - Dev Negi

ढोल - दमौ , हमारी संस्कृति का एक अहम हिस्सा रहा है , जो कि अब इस आधुनिकता के दौर में लुप्त होने की कगार पर है ॥

यह वीडियो भारत के उत्तरी छोर के आखरी गाँव इराणी (चमोली जिला) का है जहाँ
आज भी अपनी संस्कृति का पूरा बोल बाला है , इस वीडियो में आपको ढोल के
पूरे ताल सुनाई देंगे , जो कि अब सामान्यत: देखने को नहीं मिलते । यह
वीडियो मोबाइल से ली गयी है ।
आशा है आपको यह कोशिश पसंद आएगी ।
- देव नेगी

बुधवार, 18 जून 2014

उत्तराखंडी लोक संस्कृति के नाम पर आज कल के ऐसे बेहूदा - घटिया मनोविकृति एवं नकलची गानों को देख कर आश्चर्य के साथ दुःख भी होता है,





उत्तराखंडी लोक संस्कृति के नाम पर आज कल के ऐसे बेहूदा - घटिया मनोविकृति एवं नकलची गानों को देख कर आश्चर्य के साथ दुःख भी होता है, संस्कृति के नाम पर ऐसे उधेड़ नाच गाना ?? इसमे कहां हमारी संस्कृति की झलक मिलाती है ? गाना लिखने, नाचने, एवं निर्देशक को कम से कम इतनी तो अकल होनी चाहिए, कि आप किस ओर जा रहे है, और क्या दिखा रहे है? अगर आपको दूसरों की नक़ल ही करनी है तो कम से कम इसमे तो अकल लगाइए, जो की दिखने में तो अच्छा लगे, ऐसे भद्देपन एवं घटिया चलचित्र से आप क्या साबित करना चाहते है..? क्या आप ऐसे गानों से हमारी लोक कला एवं संस्कृति का प्रतिनिधित्व करना चाहते है? या सिर्फ कमरे के सामने आने और पैसे कमाने के लिए संकृति का शोषण के साथ बदनाम कर रहे हो?  शायद यही एक कारण है जिससे हमारी उत्तराखंडी संकृति एवं फिल्म जगत उभर नहीं पा रहा है, क्योकि उभारने वाले हे खुद कुएं से नहीं निकल पा रहे है, तो संस्कृति को खाक उबरेंगे, कई दोस्तों में मन में मेरे प्रति आक्रोश भी पैदा हो रहा होगा, और सोच रहे होंगे की खुद हे क्यों नहीं कर लेता जो यह सब लिख रहा है, तो मेरा उन मित्रों से यही कहना है कि जिसका काम उसी को साजे, में अपना काम बहुत इमानदारी से करता हूँ , मेरा काम लिखना है तो मई लिखता हूँ, | ऐसा भी नहीं है की उत्तराखंड में सब एक जैसे है, इसे भी बहुत अच्छे लोग हैं जिन्होंने अपनी संकृति के लिए बहुत काम किया है, और वो कामयाब भी ही है, आज जो भी बची हुई संस्कृति की बुनियाद है उसकी जड़ उनके पास ही है, !!  परन्तु कहते है न की एक मछली पूरे तालाब को गंदा करती है, ऐसे ही कुछ इस प्रकार के असामाजिक तत्वों ने हमारी संस्कृति को विलुप्ती की और अग्रसर कर दिया है, इन लोगो के कारण अच्छे कलाकारों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है, !! सोचिए : सोचने वाली बात यह है की ऐसे लोगो के हाथो में अपनी लोक कला संस्कृति की डोर देने से क्या हमारी फिल्म कला एवं लोकसंस्कृति का अस्तित्वा बच पाएगा..? लिखने को तो बहुत है पर आज के लिए इतना ही.......!! फिर कभी .......!!!

!!..सोचिए..!!

- देव नेगी


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मंगलवार, 3 जून 2014

Must watch : Garhwali Pahadi Dhol ,Damao Video by ; - Dev Negi (+pl...




This is never Seen Before,  Pure Uttarakhandi Folk Traditional Music (Taal) with  Dol, Damao & other instrumentals.
Dhol : Kamal Lal

The Video Taken & Uploaded  by Mr. Dev Negi, from Last Village of India "IRANI - JHENJI " District-  Chamoli, Uttarakhand, India. Enjoy the Video guys,  ...!!

(the Video captured by : Mobile Phone)


 ( for Dev Negi Photography plz visit https://www.flickr.com/photos/devnegi ) 

Please don't forget to leave your comments :)

सोमवार, 31 मार्च 2014


विक्रम संवत अत्यन्त प्राचीन संवत हैं। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं। नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। विक्रम संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।

शास्त्रों व शिलालेखों में :


१.  विक्रम संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना मुश्किल है। यही बात शक संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई. पू. 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भगुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई. पू. 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई. पू. 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन्+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं|

२.  विक्रम संवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है।

३.  विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे - नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है जैसे - 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।

नव संवत्सर :


विक्रम संवत २०७१ का शुभारम्भ ३१ मार्च  सन् २०१४  को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा  को होगा, इस  वर्ष को  हिन्दू धर्म के लोग नये  वर्ष के रूप में मनाते है |
पुराणों के अनुसार इसी तिथि से ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि चइस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।

राष्ट्रीय संवत:


भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की द्दष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह विक्रम संवत ही है। आज से लगभग 2,068 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था। प्राचीनकाल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।

राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान:


पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।

अन्य काल गणनाएं:


ग्रेगेरियन (अंग्रेजी) कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3582 वर्ष, रोम की2759 वर्ष यहूदी 5770 वर्ष, मिस्त्र की 28673 वर्ष, पारसी 198877 वर्ष तथा चीन की 96002307 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 112 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है। जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है।


टिप्पणी : यह लेख भिन्न जगहों से ली गयी जानकारी के आधार पर लिखा गया है !

धन्यवाद !!!

- देव नेगी


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रविवार, 9 मार्च 2014

भावी पीढ़ी के आस्तित्व को बचाना है तो पहले हिमालय को बचाएं :

Mr. Jagdish Chander
Secy. Jnrl HPSJA,

(SAVING HIMALAYA FOR SURVIVAL OF FUTURE GENERATION)


1. उत्तराखंड में हाल ही में आई आपदा को प्रकृति की ओर से अंतिम चेतावनी मानकर हमें  हिमालई क्षेत्र के संरक्षण हेतु  व्यापक स्तर पर योजनाएं बनानी होंगी अन्यथा भविष्य में हिमालय का और भी खौफनाक रूप देखने को मिल सकता है,  जो अन्तत: सारी मानवता को विनाश की ओर ले जा सकता है। इसके लिए  न केवल हिमालयी पर्यावरण के अनुकूल और अनुरूप योजनाओं की जरूरत है वरन सभी लोगों को इस दिशा में जागरूक  बनाने की भी उतनी ही आवश्यकता है क्योंकि यह प्रश्न सिर्फ एक राज्य या सिर्फ हिमालयी राज्यों से जुड़ा हुआ न होकर सारी मानवता से सम्बद्ध है ।  

2. ‘पहाड़ बचाओ-हिमालय बसाओ’ का नारा व सपना तब तक साकार नहीं हो सकता जब तक  ’पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती’’ की अवधारणा को बदलने के लिए जमीनी स्तर पर गंभीर प्रयास नहीं किए जाते। आज हिमालय जिन समस्याओं से जूझ रहा है उन सबका हल इसी पुरानी अवधारणा में छिपा है। दुर्भाग्यवश न केंद्र की सरकार और न ही किसी हिमालयी राज्य की सरकारों ने इस स्थिति को बदलने का प्रयास किया है। उक्त अवधारणा में छिपा रहस्य यह है कि  पहाड़ों में जन्मे, पले-पोसे युवा आजिविका के लिए छोटी-छोटी नौकरियों की तलाश में अपनी आरंभिक युवावस्था में ही  मैदानों की ओर पलायन कर जाते हैं। इसी प्रकार पहाड़ों में वर्षा का सारा जल नीचे की ओर मैदानों में बह जाता है । वर्षा ऋतु के दौरान यह अथाह पानी न केवल मनुष्यों और पशुओं के जीवन तथा सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुंचाता है वरन, मैदानी भागों में खड़ी फसलों को भी बहा ले जाता है। दूसरी ओर गर्मियों में मनुष्यों व पशुओं के लिए पहाड़ों में पीने के पानी की विकराल समस्या का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही सिंचाई व अन्य मूलभूत जरूरतों के लिए पानी की कमी के कारण पानी से चलने वाले घराट (आटा चक्कियां) बंद हो चुके हैं । हजारों की संख्या में खाले (झील/तालाब) जिनसे फसलों को सिंचाई व पशुओं को पीने का पानी उपलबध होता था वे जल के प्राकृतिक सुलभ स्रोत अब विलुप्त होते जा रहे हैं और पहाड़ों की ‘’खाल संस्कृति’’ अब बीते दिनों की बात बन गई है।
3. संपूर्ण हिमालय के पर्यावरण को बचाने के लिए एचईपीएफ के गठन का विचार पिछले 21 वर्षों तक गहन मंथन व विचार विमर्श का परिणाम है। यह विचार सर्वप्रथम ‘हिमालयन इकोसिस्टम का संरक्षण और टिकाऊ विकास’ नामक एक व्याख्यान में मेरे द्वारा (सम्प्रति एचपीएसजेए के महासचिव) वर्ष 1991 में बर्मिंघम विश्वविद्यालय (यूके) के लोक नीति स्कूल द्वारा आयोजित एक अवसर पर प्रकट किया गया था।  हिमालय क्षेत्र की दुर्गम भौगोलिक स्थिति, वहां के लोगों के कठिन जीवन, सामाजिक-आर्थिक दशा, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि  तथा अन्य बातों को ध्यान में रखते हुए हिमालय और उसके पर्यावरण को बचाने के लिए इससे अच्छा मॉड्यूल और नहीं हो सकता क्योंकि सरकार के पिछले पैंसठ वर्षों में बनाए गए कार्यक्रम तथा योजनाएं कारगर साबित नहीं हो सकी हैं।    
4. देश की आजादी के बाद पांचवे दशक में जंगलात विभाग ने एक भयंकर भूल की जिसमें  क्षेत्रीय वन पंचायतों व ग्राम सभाओं  के द्वारा आनन फानन में उत्तराखंड के गांवों से सटी चरागाह भूमि के लगभग 50 फीसदी हिस्से में युद्धस्तर पर चीड़ के पेड़ लगा दिए  जिनसे पर्यावरण को निम्न प्रकार से भयंकर नुकसान पहुंचा है ।
1)   पालतू पशुओं के लिए चारे का संकट पैदा हो गया ।
2)   चीड़ का पेड़ वर्षा के पानी के संरक्षण में सहायक नहीं होता ।
3) चीड़ की पत्तियां अम्लीय गुणों वाली होती हैं तथा ये जमीन में जहां गिरती हैं वहां वनस्पति नहीं उगती जिसके कारण चीड़ के पेड़ों के नीचे की जमीन बंजर भूमि में बदल जाती है।
4) चीड़ की पत्तियां पशुओं के भोजन के काम नहीं आतीं। सूखी पत्तियां आग को जल्दी पकड़ लेती हैं।  यह आग शीघ्रता से विकराल रूप ले लेती है जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। इससे पशु पक्षी जल जाते हैं और जो बच जाते हैं वे अपने भोजन के लिए मानव बस्तियों की ओर आकर कृषि और बागवानी फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे त्रस्त गांव के लोग कई बार जिला मुख्यालय में जंगली जानवरों, बंदरों, जंगली सुअरों के उत्पात से रक्षा करने की गुहार लगाते हैं ।
5) हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं को बड़े स्तर पर प्रारंभ करना पर्यावरण के विनाश का एक अत्यन्त भयंकर कारण बना है । इसके लिये हिमालय क्षेत्र के निवासियों को इन बांधों को बंद करने के लिए जन आंदोलन चलाना होगा ।
6) डायनेमाइट लगाकर ब्लास्ट कर सड़कें बनाने से भी पहाड़ों को नुकसान पहुंचा है। सड़कों के दोनों किनारों पर तीन कतारों में देवदार या अन्य उपयोगी प्रजातियों के शक्तिशाली वृक्षों को लगाना चाहिए ताकि खाई में बसों के गिरने को रोका जा सके साथ ही पहाड़ों के ऊपरी छोर से आने वाले पत्थरों से भी सुरक्षा मिल सके । सड़क की योजना बनाने के साथ-साथ पेड़ों को लगाने की योजना भी एक साथ तैयार की जानी चाहिए।
7) हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योग धंधों पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। वहां केवल उन्हीं उद्योगों को चलाने की अनुमति दी जानी चाहिए जो पर्यावरण के अनुकूल हों। हिमालय आज लहू लुहान है तथा तत्काल हस्तक्षेप के लिए हमारी ओर देख रहा है। हिमालय आज भयंकर रूप से संकटग्रस्त है जिससे हमारे अराध्य देव भोले भंडारी का सिंहासन डोल उठा है ।
8) यह बात हम सभी जानते हैं कि हिमालय से हमें जल, जंगल, उपजाऊ मिट्टी, शुद्ध आक्सीजन, इमारती लकड़ी के अलावा दुलर्भ जड़ी बूटियों की प्राप्ति होती है। हमारा संपूर्ण आस्तित्व ही हिमालय से जुड़ा है। हिमालय की चमचमाती बर्फ, सुंदर व मनोरम पर्वत श्रृंखलाएं, गहन वन इसे भारत के स्विटजरलैंड में रूपांतरित करने में सक्षम है। हिमालय अपनी अलौकिक विशेषताओं व विशिष्टताओं के कारण विश्व का सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन स्थल तथा पृथ्वी पर स्वर्ग की अवधारणा को सक्षम करने की क्षमता रखता है। साथ ही यह वैश्विक तापमान के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने की अपार क्षमताएं संजोए हैं किंतु इसके लिए हिमालय का उचित संरक्षण व देखरेख भी उतनी ही आवश्यक है।
9) भारतीय हिमालय क्षेत्र के रहने वाले लोगों का जीवन अति कठिन है क्योंकि उन्हें स्वयं के भोजन, पशुओं के चारे, ईंधन व पानी जैसी अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए रोजाना लंबी दूरी तय करनी पड़ती है तथा दुर्गम और कष्टपूर्ण ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ना पड़ता है। दुर्भाग्य से आजादी मिलने के 65 वर्षों के बाद भी इन कठिनाइयों से निजात दिलवाने के लिए सरकार द्वारा कोई गंभीर प्रयास अब तक नहीं किए गए हैं। हिमालय की समस्याओं को छोटे-छोटे प्रयासों  या  केवल गैर सरकारी संगठनों की सहायता के बल नहीं सुलझाया जा सकता।  इसके लिए हिमालय जैसे बड़े प्रयास की जरूरत है जो हिमालय की प्रकृति के अनुरूप हों, उसके परिवेश, परिप्रेक्ष्य  व हिमालयी दृढ़ता से सुविचारित योजना के अनुसार तैयार और संचालित हों। अत: इसे विचार में लेते हुए सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की तर्ज पर एक हिमालयी पर्यावरण संरक्षण बल (एचईडीएफ) को बनाए बगैर हिमालय व उसके पर्यावरण को बचाना अकल्पनीय है। प्रस्तावित हिमालयी पर्यावरण संरक्षण दल में पांच प्रभाग का प्रावधान होगा जो निम्न होंगे :
क. सिविल इंजीनियरिंग प्रभाग: चैक डाम निर्माण, इसकी देखभाल एवं मरम्मत तथा हिमालयी क्षेत्र में घोर प्राकृतिक आपदा से निपटने के ज्ञान तथा तकनीक में प्रशिक्षित, सुसज्जित एवं  सक्षम कौशल का विकास ।
ख. शीतल जल मात्स्यिकी प्रभाग:  इसके तहत जल जीवपालन से जुड़े लोगों को शीतजल में मछली पालन का उचित ज्ञान देने के लिए मत्स्य वैज्ञानिकों तथा उनकी सहायक टीम होगी ताकि मछली पालन द्वारा अतिरिक्त आय प्राप्त करने के साथ साथ लोगों की पोषण जरूरतों की भी पूर्ति की जा सके।  
ग. नर्सरी तैयार करने वाला प्रभाग: इसकी शाखा प्रत्येक जिले की सभी तहसीलों में स्थापित की जाएगी जो शीघ्र उगने वाले व जल संचयन करने वाले वृक्षों की नर्सरी तैयार करेगी।
घ. वृक्षारोपण और देखभाल प्रभाग: वृक्षारोपण करना तथा लगाए गए पेड़ों की देखभाल करना। सड़क निर्माण के तुरन्त बाद सड़क के दोनों छोरों पर तीन कतारों में देवदारू या अन्य उपयोगी  व मजबूत वृक्षों को लगाना जिससे मिट्टी के क्षरण, भूस्खलन व वाहनों को खाई या नदी में गिरने की आशंका को कम कर प्रत्येक वर्ष सड़क-हादसों में जाने वाली हजारों जानों को बचाने के साथ-साथ सड़क के ऊपरी पहाड़ों से भारी भरकम पत्थरों के सीधे वाहनों पर गिरने को भी रोका जा सके। वृक्षारोपण से पर्यावरण भी अनुकूल होगा तथा पर्यटकों को हरे भरे पहाड़ देखने का एक अलग आनन्द प्राप्त होगा ।
ड. हैलीकॉप्टर प्रभाग: यह अपेक्षाकृत छोटा प्रभाग होगा क्योंकि हैलीकॉप्टरों की आवश्यकता मई- जून के महीने में वर्षा शुरू होने के पहले उन स्थानों में जहां पहाड़ बिल्कुल वृक्ष विहीन हैं भारी संख्या में जंगली वृक्ष प्रजाति के बीजों को गिराना होगा ताकि नंगे पहाड़ों को फिर से हराभरा किया जा सके। इनका उपयोग आपदा के समय आपातकालीन स्थिति में भोजन, पानी, दवा आदि की आपूर्त्ति या संकट में फसें लोगों को एक स्थान विशेष से निकालना होगा । पहाड़ों को फिर से हरा भरा करने से जंगली जानवरों को भी भोजन की तलाश में भटकते हुए मानव बस्तियों की ओर रूख नहीं करना पड़ेगा।    
5.         अतीत में एक आम धारणा थी  कि भारत तीन ओर से हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर तथा उत्तर में ऊंची और विशाल हिमालय श्रृंखलाओं वाले प्रहरी से घिरा होने के कारण किसी भी प्रकार के विदेशी आक्रमण से सुरक्षित  है। चीन ने हमारी सीमा के पास तक सड़कें रेल-संपर्क को बढ़ाया है और वह कई प्रकार से हमारी संप्रभुता को चुनौती दे रहा है।  हमारे पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है जो दुर्गम पहाड़ों से घिरे व्यापक क्षेत्र में हो रही हलचलों की जानकारी दे सके । हिमालयी पर्यावरण सुरक्षा बल (HEPF)  का गठन सीमा सुरक्षा बल और सीमा सड़क संगठन की तर्ज पर किए जाने की आवश्यकता है जो अपने वास्तविक जनादेश के अलावा  कारगिल जैसी घटनाओं की  भविष्य में पुनरावृत्ति रोकने में काफी मददगार सिद्ध हो सकता  है।
5.1 हिमालय सुरक्षा बल की फंडिंग
यह परियोजना सूचना प्रौद्योगिकी तथा श्रम प्रचुर होने के कारण इसमें कम पूंजी की जरूरत होगी जिसे कई स्रोतों से जुटाया जा सकता है  जिनमें से कुछ को नीचे दिया जा रहा है : -
1)   संयुक्त राष्ट्र संघ के 1988 के क्योटो प्रोटोकॉल के तहत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के लिए ग्रीन फंड
    के लिए संसाधन उपलबध कराए जा सकते हैं।
2)    तीन सहभागियों यथा विश्व बैंक, केंद्र सरकार और हिमालयी राज्यों द्वारा फंडिंग के माध्यम से ।

3)   ठंडे पानी की मछलियों के उत्पादन से स़ृजित आय द्वारा जिसे अब तक हिमालयी राज्यों में वृहत पैमाने पर
     उपयोग में नहीं लाया गया है।
4)    हिमालय  के लिए उपयुक्त उद्योग और परियोजनाएं
1. कंप्यूटर  के विभिन्न पार्टों को इक्टठा करना
2. मिनरल वाटर बॉटलिंग उद्योग
3. खाद्य एवं फल प्रसंस्करण उद्योग
4. जैविक खाद उत्पादन उद्योग और उस पर आधारित जैविक खेती
5. बांस का रोपण और इस पर आधारित लघु और कुटीर उद्योग
6. रेशम उत्पादन
7. टेरेस  पर खाद्य, सब्जियां, बागवानी, हर्बल खेती और प्रसंस्करण आधारित उद्योग
8. जहां कही संभव हो चाय बागान
9. मशरूम की खेती
10. मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन
11. पशुपालन और मुर्गीपालन
12. भेड़ से ऊन उत्पादन, बुनाई और बुनाई उद्योग
13. कुटीर एवं लघु उत्पादन उद्योग द्वारा ऊनी कपड़े
14. लघु और छोटे पैमाने पन बिजली इकाइयों के माध्यम से बिजली का उत्पादन
15. यहां हवा के वार्षिक स्रोत हैं जिनसे पवन ऊर्जा के माध्यम से बिजली का उत्पादनकिया जा सकता है।
16. सौर और जैव ईंधन के माध्यम से बिजली का उत्पादन
17. पांच सितारा पर्यटन के स्थान पर यहां ईको टूरिज्म (पारिस्थितिकी पर्यटन) का विकास एवं प्रचार किया जाना चाहिए।
18. एक पर्यावरण टैक्स फंड बनाया जाना चाहिए जो हिमालय में प्रवेश करने वाले वाहनों पर लगाया जा सकता है : -

हिमालय को बचाने के लिए जागो !
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि अगले चालीस पचास वर्षों में समुद्र तट से लगे शहरों को डूबने का खतरा है। पवित्र गंगा नदी का आस्तित्व अगले 80 या इससे कुछ अधिक वर्षों में समाप्त हो जाने की आशंका है।
हिमालय भूकंप संभावित जोन में आता है इसलिए बड़ी पनबिजली परियोजनाएं  इसके लिए खतरा पैदा कर रहीं हैं।  दुर्भाग्य से यदि कभी 8 से अधिक रिक्टर स्केल तीव्रता का भूकंप आ जाए तो टेहरी डाम टूटकर हरिद्वार, ऋषिकेश, रूड़की सहित पश्चमी उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों को बहा सकता है जिससे मानव व कितने पशुधन व माल असबाब का नुकसान होगा यह कल्पना करना भी कठिन है ।  
दिल्ली तथा एनसीआर में हिमालयी राज्यों से जुड़ी लगभग 35 प्रतिशत जनसंख्या है। उनकी सांस्कृतिक विरासत तथा पृष्ठभूमि लगभग एक जैसी है लेकिन वे लोग अभी तक इस मसले पर अपनी एकता को प्रदर्शित नहीं कर पाए हैं । अत: सबसे पहली जरूरत है कि लोगों को ‘’ भावी पीढि़यों के लिए हिमालय बचावो’’ बैनर तले एकजुट होना होगा। उन्हें ‘’ एक शाम हिमालय के नाम’’ जैसे कार्यक्रमों के जरिए लोगों को आपस में जागरूक करना होगा जिसके लिए लोक -संगीत, लोक नृत्य,  कविताएं, वाद-विवाद तथा परिचर्चा और सेमिनार आयोजित कर हिमालय से जुड़े मुद्दों से लोगों को अवगत कराना होगा।



कृपया हिमालय की रक्षा के लिए तैयार रहें, समर्थन दें!                      

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गुरुवार, 20 जून 2013

कुछ यादें "मेरे गाँव की" .. ईराणी (झींजी) उत्तराखण्ड.


यह वीडियो मेरे गाँव की है, समय जनवरी महीना है,  पहले मैं अपने गाँव का थोडा़ परिचय दे दूँ : मेरा गाँव भारत देश  के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले में स्थित ईराणी (झीजी) है, जो उस क्षेत्र की सीमा का भारत का आखिरी गाँव है,  जहाँ आज तक मोटर मार्ग नहीं, बिजली नहीं है, गाँव पहुँचने के लिए  मोटर मार्ग से लगभग 26 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता है, जीवन यापन के लिए खेती एक महत्वपूर्ण जरिया है साथ ही खच्चरों के द्वारा बाजार से अन्य जरूरतों का सामान लाया जाता है ! जीवन सरल भी है और बहुत कठिन भी,
निर्भर करता है  समय और सोच पर . !!  चलिए गाँव के बारे में पूरी चर्चा किसी और लेख में करूंगा़ ।
इस वीडियो में मेरे साथ मेरे परिवार के सदस्य भाई बहन साथ मे हैं, जनवरी के मौसम में अक्सर पहाडो़ मे ठंड का मौसम होता है और बर्फवारी होती है, यह नजारा अद्भुत होता है, इसे शब्दो में बयाँ नही किया जा सकता, चारों ओर प्राकृ्तिक सुन्दरता का वातावरण मन को मोहक करने वाला होता है... आप इस वीडियो को देखिए ..:)